वेद

वरूण, धर्मराय की पदवी तथा श्री विष्णुनाथ के लोक को प्राप्त करके भीजन्म-मरण के चक्र में रहते हैं। मार्कण्डेय ऋषि जी ब्रह्म साधना कर रहे थे। उसी को सर्वोत्तम मान रहेथे। इसीलिए इन्द्र को कह रहे थे कि आ तेरे को ब्रह्म साधना का ज्ञान कराऊँ।ब्रह्म लोक की तुलना में स्वर्ग का राज्य हलवे की तुलना में जैसे कौवे की बीट है।पाठकजनो! आप जी ने ब्रह्म साधना करने वाले श्री चुणक ऋषि, श्री दुर्वासाऋषि तथा कपिल मुनि जिन्होंने ब्रह्म साधना की थी, उनकी साधना को गीता ज्ञानदाता ने गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम अर्थात् घटिया बताया है। उसी श्रेणीकी साधना मार्कण्डेय ऋषि जी की थी। जिसको अति उत्तम मानकर कर रहे थेतथा इन्द्र जी को भी राय दे रहे थे कि ब्रह्म साधना कर ले।सूक्ष्मवेद में कहा है कि

 :-औरों पंथ बतावहीं, आप न जाने राह।।1मोती मुक्ता दर्शत नाहीं, यह जग है सब अन्ध रे।दिखत के तो नैन चिसम हैं, फिरा मोतिया बिन्द रे।।2वेद पढ़ें पर भेद ना जानें, बांचे पुराण अठारा।पत्थर की पूजा करें, भूले सिरजनहारा।।3वाणी नं. 1 का भावार्थ :- अन्य को मार्गदर्शन करते हैं, स्वयं भक्ति मार्ग काज्ञान नहीं।वाणी नं. 2 का भावार्थ :- तत्वदर्शी संत के अभाव के कारण मोती मुक्तायानि मोक्ष रूपी मोती अर्थात् मोक्ष मंत्रा दिखाई नहीं देता। यह सर्व संसार अध्यात्मज्ञान नेत्राहीन अन्धा है। जिस किसी को मोतियाबिन्द जो एक प्रकार का नेत्रारोगहै जिसमें आँखें स्वस्थ दिखाई देती हैं, परंतु उस रोगग्रस्त व्यक्ति को कुछ दिखाईनहीं देता। यह उदाहरण देकर बताया है कि फर्राटेदार संस्कृत भाषा बोलते हैं।लगते हैं महाविद्वान हैं, परंतु सद्ग्रन्थों के गूढ़ रहस्यों को नहीं जानते। इनकोअज्ञान रूपी मोतियाबिन्द हुआ है।वाणी नं. 3 का भावार्थ :- वेदों को पढ़कर कंठस्थ करने वाले वेदों के गूढ़रहस्यों को न समझकर उनके विरूद्ध साधना करते-कराते हैं। वेदों में पत्थर कीमूर्ति की पूजा का कहीं उल्लेख नहीं है, वे वेदों के विद्वान कहलाने वाले पत्थर पूजाकरते तथा कराते हैं। 
वेदों में वर्णित सिरजनहार को भुला दिया है।श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 25 से 29 तक यही बताया है कि जोसाधक जैसी भी साधना करता है, उसे उत्तम मानकर कर रहा होता है, सर्व साधकअपनी-अपनी भक्ति को पापनाश करने वाली जानते हैं।गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में स्पष्ट किया है कि यज्ञों अर्थात् धार्मिकअनुष्ठानों का ज्ञान स्वयं सच्चिदानन्द घन ब्रह्म ने अपने मुख कमल से बोली वाणीमें विस्तार के साथ कहा है, वह तत्वज्ञान है। जिसे जानकर साधक सर्व पापों सेमुक्त हो जाता है।

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